जब जीतने से बड़ी चुनौती जीत को बड़ा करना हो। जब हर दूसरी बात में जाति-धर्म का जिक्र करने वाले पूर्वांचल जैसे इलाके में चुनाव जाति-धर्म से परे हो जाए। वोटबैंक, क्षेत्रवाद, परिवारवाद का जिक्र तक न करे। और अपने रिकॉर्ड को तोड़ना ही अर्जुन सा लक्ष्य हो। तो ये पॉलिटिकल कहानी सचमुच काशी की ही हो सकती है। देश में यह भाजपा की सबसे सुरक्षित सीट है। यहां चुनौती, तनाव, कोशिश, कवायद सबका सब जीत का मार्जिन बढ़ाने के लिए है।
काशी एक्सट्रीम शहर है, यह बात या तो बहुत ज्यादा गैर राजनीतिक है या फिर अतिशय राजनीतिक। यहां हर चीज में अति है। पर, यह भी उतना ही सच है कि बनारसी शाब्दिक क्रांति में ही भरोसा करते हैं। बोलेंगे बहुत हर व्यक्ति राजनीतिक पंडित है। विश्लेषण तो यहां सड़क, चौराहों तक पर्याप्त विशेषज्ञता के साथ प्रचुर मात्रा में मिल जाएगा पर मतदान में इसकी झलक नहीं दिखती। वरना यहां की सियासी तासीर के हिसाब से 80 प्रतिशत मतदान होना ही चाहिए, पर कभी 60 फीसदी से आगे नहीं जा पाता। यहां के लोग खिलंदड़ हैं, मनमौजी हैं, इसलिए उनका व्यवहार बहुत कुछ अप्रत्याशित रहता है। देश में इसे सबसे जटिल मतदाताओं वाली लोकसभा सीट कहा जाए तो भी कोई बुरा नहीं मानेगा। सबसे ज्यादा असुविधाओं में जीने वाला शहर है ये, फिर भी सबसे बेफिक्र अपनी आदतों के लिए ये कुछ भी नुकसान उठा लेंगे।
जब जीतने से बड़ी चुनौती जीत को बड़ा करना हो। जब हर दूसरी बात में जाति-धर्म का जिक्र करने वाले पूर्वांचल जैसे इलाके में चुनाव जाति-धर्म से परे हो जाए। वोटबैंक, क्षेत्रवाद, परिवारवाद का जिक्र तक न करे। और अपने रिकॉर्ड को तोड़ना ही अर्जुन सा लक्ष्य हो। तो ये पॉलिटिकल कहानी सचमुच काशी की ही हो सकती है। देश में यह भाजपा की सबसे सुरक्षित सीट है। यहां चुनौती, तनाव, कोशिश, कवायद सबका सब जीत का मार्जिन बढ़ाने के लिए है।
वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य इमरजेंसी के दौर से अब तक की बनारस की पत्रकारिता देख चुके हैं। वह कहते हैं, भाजपा के पास संगठन है। कार्यकर्ता इसकी बड़ी ताकत है। भाजपा को छोड़कर किसी और के पास ऐसी ताकत नहीं है। मोदी और अजय राय में धरती-अंबर सा गैप है। पर, बात जब मार्जिन की आती है तो छोटी-छोटी चीजें बड़ी जरूरी हो जाती हैं। कबूतर उड़ाना अच्छा लगता है, लेकिन अंडा तो मत उड़ाइए। इस शहर को स्मार्ट, मॉडर्न सिटी के तौर पर देखने लोग नहीं आते। ये 6000 साल पुराना, दुनिया का सबसे प्राचीन शहर है। आधुनिकता के नाम पर बेतुके विकास को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है।
यहां राजनीति चाय की अड़ी पर खौलती है, कचौड़ी की दुकान पर उसमें सत्तर मसाले मिलाए जाते हैं। फिर बेलौस-सी महफिल में उठती है, तो अति सकरी गलियों में अगली सुबह तक के लिए अंतर्ध्यान हो जाती है। काशी की राजनीति और आंखन देखी को सियासी बारहखड़ी में समझना हो तो सबसे पहले जानना होगा कि इस बार चुनाव में क्या अलग है।
इस तरह से अलग है इस बार का चुनाव
पहला : कम प्रत्याशी
पिछली बार यहां 27 प्रत्याशी मैदान में थे और उससे पहले 2014 में 43 उम्मीदवार। इस बार सिर्फ आठ। इसका सीधा फायदा मतों के बंटवारे में होगा। जो वोट पहले टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे, वो इस बार थोक भाव में किसी पार्टी का हिस्सा हो जाएंगे।
दूसरा : सपा और कांग्रेस साथ
इन दो पार्टियों के साथ होने से मुस्लिम वोट बंटेंगे नहीं। सपा को पिछली बार करीब 1.95 लाख (18.4 प्रतिशत) वोट मिले थे और कांग्रेस को 1.52 लाख (14.48 प्रतिशत)। अगर इतने भी वोट मिल जाते हैं तो 3.5 लाख के करीब वोट विपक्ष के हिस्से आएंगे। पीएम मोदी को 6.74 लाख वोट मिले थे, जो कुल वोट का 63.6 प्रतिशत था।
तीसरा : बसपा सबसे कमजोर
मुस्लिम प्रत्याशी उतारने के बावजूद बसपा के हिस्से उनके वोट आते नहीं दिख रहे। काशी बसपा की प्राथमिकता में भी नहीं है। पहले काशी में दो बार प्रत्याशी बदला, फिर स्टार प्रचारकों को यहां से दूर रखा गया। वोटर इस सबको लेकर कंफ्यूज हैं। पिछली बार बसपा-सपा का गठबंधन था। इस बार अकेले है।
चौथा : एक से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार
हर बार एक से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार काशी से खड़े होते रहे हैं। इस वजह से इनके वोट बंट जाते थे। 2019 और 2014 में चार-चार मुस्लिम प्रत्याशी खड़े हुए थे। इस बार बसपा के अतहर जमाल लारी इकलौते मुस्लिम उम्मीदवार हैं।
पांचवां : पहली बार विश्वनाथ कॉरिडोर और राम मंदिर का लोकार्पण
काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के लोकार्पण के बाद यह पहला चुनाव है। वहीं, राममंदिर बनने का पॉलिटिकल फायदा भी काशी के हिस्से आएगा। धर्म के इस एंगल का ठीक ठाक
असर इस सीट पर होगा।
छठा : नारी वंदन
पहली बार काशी में महिलाओं के लिए सम्मेलन हुआ। यह इतना बड़ा था, जितना किसी पार्टी ने कहीं नहीं किया। इसके संचालन, प्रबंधन तक सब कुछ महिलाओं के हाथ में था। आधी आबादी को साधने का ये ब्रह्मास्त्र माना जा रहा है।
सातवां : आगाज से अंजाम का संकेत
पहली बार भाजपा ने नामांकन में ही बड़ी फौज जुटाकर अंजाम का संकेत दे दिया। 16 राष्ट्रीय अध्यक्ष, तीन सीएम, रक्षामंत्री समेत 4 केंद्रीय मंत्री मौजूद रहे। इसके बाद प्रचार के लिए आखिरी हफ्ते में काशी को सियासी पर्यटन का केंद्र बना दिया। मंत्री गलियों में चाय पीते, योग करते दिखे। कमजोर विपक्ष भी नहीं था। उसके दिग्गज राहुल, अखिलेश, प्रियंका और डिंपल को भी काशी आना पड़ा।
काशी की राजनीति के दो प्रमुख कालखंड
क्रांति : बनारस की राजनीति को अगर देखें तो इसके प्रमुख तीन कालखंड हैं। एक देशकाल, दूसरा-जाति काल और तीसरा-क्रांतिकारी आंदोलन का। जब काशी के घाट और उसके किनारे बने मंदिरों में गुप्त बैठकें होती थीं। यहीं से निकले डॉ. संपूर्णानंद, टीएन सिंह, रघुनाथ सिंह राष्ट्रीय स्तर के नेता बने। इमरजेंसी की पौध राजनारायण ने इंदिरा गांधी को हराकर इतिहास को अपने हिस्से कर लिया। काकोरी मामले में बीएचयू के एक स्टूडेंट को फांसी तक हो चुकी है।
धर्म : दूसरा प्रमुख कालखंड है जब धर्म के आधार पर राजनीति दौड़ने और फुदकने लगी। यही वह कालखंड है जब भाजपा ने पूर्व डीजीपी श्रीशचंद्र दीक्षित को सांसद का चुनाव लड़वाया। वह कारसेवकों को अयोध्या पहुंचाने की योजना बनाने वाले अशोक सिंघल के करीबी रहे। कारसेवकों पर गोली चली तो खुद सामने आ गए थे। पूर्व डीजीपी को देखते ही पुलिस ने गोली चलानी बंद कर दी। वे इंदिरा गांधी के सिक्योरिटी अफसर भी थे। 1991 में वह काशी के चुनावी मैदान में उतरे और जीते। 1996 से 1999 तक तीन बार चुनाव हुए और तीनों बार भाजपा से शंकर प्रसाद जायसवाल जीते।
- 2004 में वक्त का पहिया घूमा और फिर से यह सीट कांग्रेस के हिस्से चली गई। 2009 में फिर एक बार हिंदूवादी छवि वाले नेता मुरली मनोहर जोशी को उतारा। विपक्ष में मुख्तार अंसारी था। जब सारा पूर्वांचल जाति के आधार पर प्रत्याशी और वोट चुनता-बीनता रहा, तब भी काशी में धर्म की ही राजनीति हुई।
मोदी के मुकाबिल
पीएम मोदी के अलावा जो सात लोग इस चुनाव मैदान में हैं उनमें सबसे बड़ा नाम है अजय राय का। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और पांच बार के विधायक हैं। उनके बाद नाम आता है बसपा के अतहर जमाल लारी का। वे बुनकरों के नेता हैं, कई चुनाव लड़ चुके हैं। फिर अपना दल कमेरावादी के गगन प्रकाश यादव का नाम आता है। वो पीडीएम के प्रत्याशी हैं और उनकी पार्टी पटेलों में दबदबा रखती है।
अलग-अलग समाजों के एकमुश्त वोट
इसमें सबसे पहले आते हैं आश्रम, मठ, मंदिरों से जुड़े लोग। 500 मठ और मंदिर हैं काशी में। दस हजार से ज्यादा लोग यहां ऐसे हैं जो मोक्ष की चाहत में काशी आए और यहां के मुमुक्षु भवन और वृद्धाश्रम में रहते हैं। शहर में दक्षिण भारतीयों की अच्छी-खासी आबादी है। तेलुगु और तमिल मिलाकर 2 लाख वोटर हैं। कन्नड़ और मलयाली करीब 50 हजार हैं। बिहार के लोगों की 2 लाख से ज्यादा आबादी है। बंगाली, गुजराती, मारवाड़ी, मराठी वोटर भी बल्क वोटर का हिस्सा हैं।
काशी का जातीय समीकरण
वाराणसी के दो विधानसभा क्षेत्र ग्रामीण, तो तीन शहरी इलाकों के हैं। ग्रामीण विधानसभा क्षेत्रों में पटेल और भूमिहार ज्यादा हैं। शहरी विधानसभा क्षेत्रों में कायस्थ, ब्राह्मण, मुस्लिम, वैश्य के अलावा यादव भी हैं। 20 प्रतिशत मुसलमान वोटर हैं।
किस विधानसभा क्षेत्र में किस जाति के ज्यादा मतदाता
- सेवापुरी में भूमिहार व पटेल
- रोहनियां में पटेल
- कैंट में कायस्थ और मुस्लिम
- वाराणसी उत्तरी में वैश्य, जायसवाल
- वाराणसी दक्षिणी में ब्राह्मण और मुस्लिम